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रब्त हो ग़ैर से अगर कुछ है | शाही शायरी
rabt ho ghair se agar kuchh hai

ग़ज़ल

रब्त हो ग़ैर से अगर कुछ है

रौनक़ टोंकवी

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रब्त हो ग़ैर से अगर कुछ है
इस तरफ़ भी मगर नज़र कुछ है

बे-ख़बर है वो हर दो आलम से
जिस को उस शोख़ को ख़बर कुछ है

याँ कोई माजरा-शरीक नहीं
है अगर कुछ तो चश्म-ए-तर कुछ है

मिट गया क़िस्सा मर गया आशिक़
हो मुबारक तुम्हें ख़बर कुछ है

जुस्तुजू है वहीं वहीं है नज़र
जल्वा-रेज़ी जिधर जिधर कुछ है

है तमाशा ब-क़द्र-ए-ज़ौक़-ए-निगाह
देखता हूँ जिधर उधर कुछ है

बद बला है किसी किसी की नज़र
तुम न जाना कि बाम पर कुछ है

अज़्म सू-ए-अदम तो है 'रौनक़'
तोशा-ए-राह भी मगर कुछ है