राज़-ए-दिल जो तिरी महफ़िल में भी इफ़शा न हुआ
या सर-ए-दार हुआ या सर-ए-मय-ख़ाना हुआ
एक हम हैं कि तसव्वुर कि तरह साथ रहे
एक तू है कि जो ख़ल्वत में भी तन्हा न हुआ
क्या भरोसा है तिरे लुत्फ़-ओ-करम का ऐ दोस्त
जिस तरह साया-ए-दीवार हुआ या न हुआ
शबनमिस्ताँ में उतर आई थी सूरज की किरन
आइना-ख़ाना-ए-गुल था कि सनम-ख़ाना हुआ
इस क़दर रंज सहे दिल ने वफ़ा में 'ख़ातिर'
आज वो हम से जो बिछड़े भी तो सदमा न हुआ
ग़ज़ल
राज़-ए-दिल जो तिरी महफ़िल में भी इफ़शा न हुआ
ख़ातिर ग़ज़नवी

