रात याद-ए-निगह-ए-यार ने सोने न दिया
शादी-ए-वादा-ए-दिलदार ने सोने न दिया
हो गई सुब्ह दर-ए-ख़ाना पे बैठे बैठे
फ़ितना-ए-चशम-ए-फुसूँ-कार ने सोने न दिया
शब वो बे-कल रहे काकुल में फँसा कर उस को
शोर-ओ-फ़रियाद-ए-दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया
था शब-ए-हिज्र में इक ख़ून का दरिया जारी
एक पल दीदा-ए-ख़ूँ-बार ने सोने न दिया
रात भर ख़ून-ए-जिगर हम ने किया है 'आरिफ़'
फ़िक्र-ए-रंगीनी-ए-अशआर ने सोने न दिया
इस तन-ए-ज़ार पे एक बार-ए-गिराँ है ये भी
यार के साया-ए-दीवार ने सोने न दिया
अब तो कर देवें रिहा वो मुझे शायद कि उन्हें
मेरी ज़ंजीर की झंकार ने सोने न दिया
ग़ज़ल
रात याद-ए-निगह-ए-यार ने सोने न दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़