रात क़ातिल की गली हो जैसे
चाँद ईसा सा बनी हो जैसे
रात इक शब की ब्याही हो दुल्हन
माँग तारों से भरी हो जैसे
उन ही ज़र्रों से हैं लम्हे मह-ओ-साल
उम्र इक रेत-घड़ी हो जैसे
एक तिनका भी न छोड़ा घर में
तेज़ आँधी सी चली हो जैसे
यूँ उमँडता है तिरा ग़म अब तक
कोई सावन की नदी हो जैसे
जिस ने पत्थर का किया है मुझ को
अल्फ़-लैला की परी हो जैसे
जाने कैसे हैं रफ़ीक़ों के मकाँ
कोई दुश्मन की गली हो जैसे
उस में ग़म के न ख़ुशी के आँसू
आँख पत्थर की बनी हो जैसे
इस तरह ख़ुश हूँ कि ख़्वाबों में वही
फूल बरसा के गई हो जैसे
मैं उसे भूल गया हूँ ऐसे
वो मुझे भूल गई हो जैसे
आज के दौर में ये मश्क़-ए-सुख़न
मुफ़्त की दर्द-सरी हो जैसे
ग़ज़ल
रात क़ातिल की गली हो जैसे
वजद चुगताई