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रात क्या क्या मुझे मलाल न था | शाही शायरी
raat kya kya mujhe malal na tha

ग़ज़ल

रात क्या क्या मुझे मलाल न था

जुरअत क़लंदर बख़्श

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रात क्या क्या मुझे मलाल न था
ख़्वाब का तो कहीं ख़याल न था

आज क्या जाने क्या हुआ हम को
कल भी ऐसा तो जी निढाल न था

बोले सब देख मेरी जाँ-कावी
ये तो फ़रहाद का भी हाल न था

जब तलक हम न चाहते थे तुझे
तब तक ऐसा तिरा जमाल न था

अब तो दिल लग गया है क्यूँ कि न आएँ
पहले कहते तो कुछ मुहाल न था

टल गया देख यूँ तिरा अबरू
कि गोया चर्ख़ पर हिलाल न था

टुक न ठहरा मिरे वो पास आ कर
कुछ तमाशा था ये विसाल न था

देख शब अपने रश्क-ए-लैला को
दंग था मैं तो मुझ में हाल न था

सुन के बोला तमाम क़िस्सा-ए-क़ैस
इश्क़ का उस को भी कमाल न था

इतना रोया लहू तू कब 'जुरअत'
अभी दामन तिरा तो लाल न था