रात क्या क्या मुझे मलाल न था
ख़्वाब का तो कहीं ख़याल न था
आज क्या जाने क्या हुआ हम को
कल भी ऐसा तो जी निढाल न था
बोले सब देख मेरी जाँ-कावी
ये तो फ़रहाद का भी हाल न था
जब तलक हम न चाहते थे तुझे
तब तक ऐसा तिरा जमाल न था
अब तो दिल लग गया है क्यूँ कि न आएँ
पहले कहते तो कुछ मुहाल न था
टल गया देख यूँ तिरा अबरू
कि गोया चर्ख़ पर हिलाल न था
टुक न ठहरा मिरे वो पास आ कर
कुछ तमाशा था ये विसाल न था
देख शब अपने रश्क-ए-लैला को
दंग था मैं तो मुझ में हाल न था
सुन के बोला तमाम क़िस्सा-ए-क़ैस
इश्क़ का उस को भी कमाल न था
इतना रोया लहू तू कब 'जुरअत'
अभी दामन तिरा तो लाल न था
ग़ज़ल
रात क्या क्या मुझे मलाल न था
जुरअत क़लंदर बख़्श