EN اردو
रात के समुंदर में ग़म की नाव चलती है | शाही शायरी
raat ke samundar mein gham ki naw chalti hai

ग़ज़ल

रात के समुंदर में ग़म की नाव चलती है

वामिक़ जौनपुरी

;

रात के समुंदर में ग़म की नाव चलती है
दिन के गर्म साहिल पर ज़िंदा लाश जलती है

इक खिलौना है गीती तोड़ तोड़ के जिस को
बच्चों की तरह दुनिया रोती है मचलती है

फ़िक्र ओ फ़न की शहज़ादी किस बला की है नागिन
शब में ख़ून पीती है दिन में ज़हर उगलती है

ज़िंदगी की हैसिय्यत बूँद जैसे पानी की
नाचती है शोलों पर चश्म-ए-नम में जलती है

भूके पेट की डाइन सोती ही नहीं इक पल
दिन में धूप खाती है शब में पी के चलती है

पत्तियों की ताली पर जाग उठे चमन वाले
और पत्ती पत्ती अब बैठी हाथ मलती है

घुप अँधेरी राहों पर मशअल-ए-हुसाम-ए-ज़र
है लहू में ऐसी तर बुझती है न जलती है

इंक़िलाब-ए-दौराँ से कुछ तो कहती ही होगी
तेज़ रेल-गाड़ी जब पटरियाँ बदलती है

तिश्नगी की तफ़्सीरें मिस्ल-ए-शम्अ हैं 'वामिक़'
जो ज़बान खुलती है उस से लौ निकलती है