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रात के रहने का न डर कीजिए | शाही शायरी
raat ke rahne ka na Dar kijiye

ग़ज़ल

रात के रहने का न डर कीजिए

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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रात के रहने का न डर कीजिए
एक तो शब याँ भी सहर कीजिए

लोग कहेंगे तुम्हें हरजाई है
दिल में इक आलम के न घर कीजिए

देखते हो मेरी तरफ़ क्या मियाँ
अपनी भी सूरत पे नज़र कीजिए

आ ही लिया बे-ख़बरी ने हमें
कौन है याँ किस को ख़बर कीजिए

ग़ैर को जा देते हो घर में अगर
मेरे तईं शहर-बदर कीजिए

देख निगाहें तिरी कहती है ख़ल्क़
ऐसी निगाहों से हज़र कीजिए

फिर नहीं मिलना तिरा मुश्किल मियाँ
जाँ का गर अपनी ज़रर कीजिए

मंज़िल-ए-हस्ती में बहुत हम रहे
'मुसहफ़ी' अब याँ से सफ़र कीजिए