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रात जब ज़ख़्म के आईने से टकराती है | शाही शायरी
raat jab zaKHm ke aaine se Takraati hai

ग़ज़ल

रात जब ज़ख़्म के आईने से टकराती है

मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब

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रात जब ज़ख़्म के आईने से टकराती है
लौ चराग़ों की शफ़क़ बन के बिखर जाती है

घर का आँगन हो कि सहराओं का सन्नाटा हो
कोई आवाज़ तआ'क़ुब में चली आती है

कितना हस्सास है ये आलम-ए-तन्हाई भी
फूल खिलते हैं तो ज़ख़्मों से महक आती है

हर नई सुब्ह तिरी याद का आँसू बन कर
ज़िंदगी शाम की पलकों से टपक जाती है

आग लगती है ख़यालों के उफ़ुक़-ज़ारों में
रौशनी मोम की मानिंद पिघल जाती है

दिल की गलियों से गुज़रता है ज़माना कोई
फ़िक्र-ए-शाइ'र में कोई रात महक जाती है

सोचते चेहरों पे सदियों की थकन है 'साक़िब'
जागती आँखों में अब नींद कहाँ आती है