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रात भर कोई न दरवाज़ा खुला | शाही शायरी
raat bhar koi na darwaza khula

ग़ज़ल

रात भर कोई न दरवाज़ा खुला

इक़बाल नवेद

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रात भर कोई न दरवाज़ा खुला
दस्तकें देती रही पागल हवा

वक़्त भी पहचान से मुनकिर रहा
धुँद में लिपटा रहा ये आईना

कोई भी ख़्वाहिश न पूरी हो सकी
रास्ते में लुट गया ये क़ाफ़िला

वो परिंदा हूँ जिसे होते ही शाम
भूल जाए अपने घर का रास्ता

हम-सफ़र सब अजनबी होते गए
जैसे जैसे रास्ता कटता गया

हम किनारे आ लगे थक कर 'नवेद'
और दरिया उम्र भर चलता रहा