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रात-भर चाँद की गलियों में फिराती है मुझे | शाही शायरी
raat-bhar chand ki galiyon mein phiraati hai mujhe

ग़ज़ल

रात-भर चाँद की गलियों में फिराती है मुझे

कफ़ील आज़र अमरोहवी

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रात-भर चाँद की गलियों में फिराती है मुझे
ज़िंदगी कितने हसीं ख़्वाब दिखाती है मुझे

इन दिनों इश्क़ की फ़ुर्सत ही नहीं है वर्ना
उस दरीचे की उदासी तो बुलाती है मुझे

तोड़ देता हूँ कि ये भी कहीं धोका ही न हो
जाम में जब तिरी सूरत नज़र आती है मुझे

दिन इसी फ़र्क़ के जंगल में गुज़र जाता है
रात यादों का वही ज़हर पिलाती है मुझे

साथ जिस रोज़ से छूटा है किसी का 'आज़र'
जैसे कमरे की हर इक चीज़ डराती है मुझे