रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
अपना होना और न होना मुबहम था
एक गुल-ए-तन्हाई था जो हमदम था
ख़ार ओ ग़ुबार का सरमाया भी कम कम था
आँख से कट कट जाते थे सारे मंज़र
रात से रंग-ए-दीदा-ए-हैराँ बरहम था
जिस आलम को हू का आलम कहते हैं
वो आलम था और वो आलम पैहम था
ख़ार ख़मीदा-सर थे बगूले बे-आवाज़
सहरा में भी आज कसी का मातम था
रौशनियाँ अतराफ़ में 'ज़ेहरा' रौशन थीं
आईने में अक्स ही तेरा मद्धम था
ग़ज़ल
रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
ज़ेहरा निगाह