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रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था | शाही शायरी
raat ajab aaseb-zada sa mausam tha

ग़ज़ल

रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था

ज़ेहरा निगाह

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रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
अपना होना और न होना मुबहम था

एक गुल-ए-तन्हाई था जो हमदम था
ख़ार ओ ग़ुबार का सरमाया भी कम कम था

आँख से कट कट जाते थे सारे मंज़र
रात से रंग-ए-दीदा-ए-हैराँ बरहम था

जिस आलम को हू का आलम कहते हैं
वो आलम था और वो आलम पैहम था

ख़ार ख़मीदा-सर थे बगूले बे-आवाज़
सहरा में भी आज कसी का मातम था

रौशनियाँ अतराफ़ में 'ज़ेहरा' रौशन थीं
आईने में अक्स ही तेरा मद्धम था