रास्ते फैले हुए जितने भी थे पत्थर के थे
राहज़न शश्दर रहे ख़ुद क़ाफ़िले पत्थर के थे
नर्म-ओ-नाज़ुक ख़्वाहिशें क्या हो गईं हम क्या कहीं
आरज़ूओं की नदी में बुलबुले पत्थर के थे
अश्क से महरूम थीं आँखें फ़ज़ा-ए-शहर की
जान-ओ-दिल पत्थर के थे जो ग़म मिले पत्थर के थे
हर क़दम पर ठोकरों में ज़िंदगी बटती रही
आदमी की राह में सब मरहले पत्थर के थे
दिल धड़क कर चुप रहा कल मस्लहत की राह पर
सर-बुरीदा सैकड़ों ऊपर तले पत्थर के थे
रेगज़ार-ए-ज़ीस्त में सोज़-ए-सफ़र जाता रहा
यूँ हुआ महसूस जैसे आबले पत्थर के थे
लम्हा लम्हा संग बन कर जी रही थी मैं 'सदफ़'
चाहतों के दरमियाँ जब हौसले पत्थर के थे
ग़ज़ल
रास्ते फैले हुए जितने भी थे पत्थर के थे
सदफ़ जाफ़री