रास्ते मंज़िलों के बनी ज़िंदगी 
तो कभी रास्ते में मिली ज़िंदगी 
रेत सी मुट्ठियों से फिसलती रही 
क़तरा-क़तरा पिघलती रही ज़िंदगी 
इस ज़माने को पैग़ाम दे जाएगी 
चाहे अच्छी हो या फिर बुरी ज़िंदगी 
मेरी रहबर भी है मेरी हमराज़ भी 
दे रही है नसीहत तभी ज़िंदगी 
हर तरफ़ ढेर लाशों के दिखने लगे 
हादसों में बनी सनसनी ज़िंदगी 
जान ले के हथेली पे चलती हूँ मैं 
मौत को जी रही है मिरी ज़िंदगी 
आज से तेरे मेरे अलग रास्ते 
वो तिरी ज़िंदगी ये मिरी ज़िंदगी 
जाने कब से रुकी थी तिरी आस में 
आँसुओं में जमी बर्फ़ सी ज़िंदगी 
इन हवाओं के तेवर बड़े सख़्त हैं 
देख सरहद किधर जाएगी ज़िंदगी
        ग़ज़ल
रास्ते मंज़िलों के बनी ज़िंदगी
सीमा शर्मा सरहद

