रास आने लगी थी तन्हाई
याद-ए-महबूब तू कहाँ आई
फिर उठाता हूँ मिन्नत-ए-तिफ़्लाँ
फिर है सौदा-ए-नंग-ए-रुस्वाई
फिर वही कारोबार-ए-राज़-ओ-नियाज़
फिर वही शौक़-ए-ख़ल्वत-आराई
फिर वही आस्ताँ है और मैं हूँ
फिर वही सर है और जबीं-साई
फिर वही सुब्ह और अज़्म-ए-सफ़र
फिर वही शाम और तन्हाई
देख कर तुझ को देखता ही रहा
एक दीदार का तमन्नाई
तेरी ख़िदमत में नज़्र है ये ग़ज़ल
ऐ सरापा ग़ज़ल की रा'नाई
ग़ज़ल
रास आने लगी थी तन्हाई
ज़ुल्फ़िक़ार अली बुख़ारी