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राह-ए-हक़ में तुझे हस्ती को मिटाना होगा | शाही शायरी
rah-e-haq mein tujhe hasti ko miTana hoga

ग़ज़ल

राह-ए-हक़ में तुझे हस्ती को मिटाना होगा

मोहम्मद अली साहिल

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राह-ए-हक़ में तुझे हस्ती को मिटाना होगा
देखना फिर तिरी ठोकर में ज़माना होगा

रोने वाले तुझे हँसते हुए फूलों की तरह
सारी दुनिया को हुनर अपना दिखाना होगा

बे-वफ़ा हो के भी तू इतनी मुक़द्दस क्यूँ है
ज़िंदगी आज तुझे राज़ बताना होगा

वक़्त-ए-रुख़्सत यही कहती थीं बरसती आँखें
पास मेरे तुझे फिर लौट के आना होगा

एक चिंगारी तअ'स्सुब की नज़र आई है
देखना ये है कहाँ इस का निशाना होगा

अपने माज़ी के हर इक ग़म को भुला दे वर्ना
चोट फिर उभरेगी फिर दर्द पुराना होगा

ख़ामुशी तेरी मिरी जान लिए लेती है
अपनी तस्वीर से बाहर तुझे आना होगा

ज़िंदगी में तुझे चलना है सँभल कर 'साहिल'
रास्ते में तिरे कम-ज़र्फ़ ज़माना होगा