राब्ता है मुझे शीशे से न पैमाने से
फिर वो क्या बात है मंसूब हूँ मय-ख़ाने से
अहल-ए-मय-ख़ाना सलीक़े से पिएँ आब-ए-हयात
वर्ना फिर मौत है छलकेगी जो पैमाने से
एक आलम से जुदा मस्लिहतें हैं इस की
कौन हर बात पे उलझे तिरे दीवाने से
ख़िरद आशोब है हर नुक्ता-ए-इरफ़ान-ए-हयात
और बढ़ता है जुनूँ अक़्ल के बढ़ जाने से
ग़ज़ल
राब्ता है मुझे शीशे से न पैमाने से
निहाल सेवहारवी