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क़ुसूर-वार जो तुम हो ख़ता हमारी भी है | शाही शायरी
qusur-war jo tum ho KHata hamari bhi hai

ग़ज़ल

क़ुसूर-वार जो तुम हो ख़ता हमारी भी है

ख़ुर्शीद तलब

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क़ुसूर-वार जो तुम हो ख़ता हमारी भी है
दिए बुझाने में शामिल हवा हमारी भी है

बहुत अज़ीज़ हमें तेरी दोस्ती है मगर
अगर ग़ुरूर है तुझ में अना हमारी भी है

हमें भी ज़ेब-ए-समाअत कभी बनाया जाए
दबी दबी ही सही इक सदा हमारी भी है

किसी ने दिल पे मिरे हाथ रख के पूछा था
तिरी बहिश्त में क्या कोई जा हमारी भी है

हम इस ज़मीन से किस तरह दस्त-कश हो जाएँ
इसी ज़मीन के अंदर ग़िज़ा हमारी भी है

हर एक आँख में ख़ुद को तलाश करते हैं
अभी शनाख़्त 'तलब' गुम-शुदा हमारी भी है