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क़ुर्बतें न बन पाए फ़ासले सिमट कर भी | शाही शायरी
qurbaten na ban pae fasle simaT kar bhi

ग़ज़ल

क़ुर्बतें न बन पाए फ़ासले सिमट कर भी

सरवर अरमान

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क़ुर्बतें न बन पाए फ़ासले सिमट कर भी
हम कि अजनबी ठहरे आप से लिपट कर भी

हादसों ने हर सूरत अपनी ज़द में रखना था
हम ने चल के देखा है रास्ते से हट कर भी

आगही की मंज़िल से लौट जाएँ हम कैसे
उस जगह नहीं जाएज़ देखना पलट कर भी

हम ने लाख समझाया दिल मगर नहीं माना
मुतमइन सा लगता है किर्चियों में बट कर भी

दश्त-ए-दिल से जो उट्ठा हो के सूरत-ए-शबनम
रह गया है पलकों पर वो ग़ुबार छट कर भी

पत्थरों के तूफ़ाँ में दिल-नुमा घरोंदों ने
आज़मा लिया आख़िर ख़ुद को आज डट कर भी

दाएरों के राही थे मंज़िलें कहाँ मिलतीं
बे-मुराद हैं पाँव गर्द-ए-रह से अट कर भी