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क़ुर्बतें बढ़ गई निगाहों की | शाही शायरी
qurbaten baDh gai nigahon ki

ग़ज़ल

क़ुर्बतें बढ़ गई निगाहों की

फ़ारूक़ मुज़्तर

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क़ुर्बतें बढ़ गई निगाहों की
अब हदें ख़त्म हैं लिबासों की

धूप रोके खड़ी है किस के लिए
ये सर-ए-रह क़तार पेड़ों की

और फैलेगा आग का दरिया
और झुलसेगी खाल चेहरों की

ख़ुद-कुशी का सफ़र भी सहल नहीं
भीड़ सी है लगी सवालों की

कौन ख़ुद में समो सका है कभी
वुसअतें ला-ज़वाल लम्हों की

कब से दोहरा रहा हूँ मैं 'मुज़्तर'
एक फ़हरिस्त चंद नामों की