क़ुर्बत-ए-हुस्न में भी दर्द के आसार मिले
चारा-गर इश्क़ के मरहम के तलबगार मिले
दस्त-ओ-पा अपने तो वाबस्ता-ए-ज़ंजीर सही
इक तमन्ना थी कोई साहब-ओ-मुख़्तार मिले
हाँ जुनूँ-ख़ेज़ी-ए-दिल रेहन-ए-मसर्रत न हुई
ख़ुश हुई वहशत-ए-ग़म जब रसन-ओ-दार मिले
ख़ाक उड़ाएँ कि नए शहर बसाएँ यारो
हम ब-हर-रंग हर इक शौक़ से बेज़ार मिले
हम हैं इस कार-गह-ए-शीशा-गराँ में हैराँ
आइने ताब-ए-नज़ारा के तलबगार मिले
शौक़-ए-बे-मिन्नत-ए-एहसान-ए-दिगर क्या कहिए
ख़ुद से इस शौक़ में हम बर-सर-ए-पैकार मिले
दश्त-ए-मजनूँ था कोई तेशा-फ़रहाद कोई
इशरत-ए-मर्ग सही हीला-ए-बे-कार मिले
ख़्वाहिश-ए-मर्ग दर-ए-यार-ए-तमन्ना ही सही
सर मगर दोश पे हम को भी गिराँ-बार मिले
शब क़यामत सी गुज़र जाती है तन्हाई में
बख़्त-यावर है जिसे दीदा-ए-बेदार मिले
अपने हम-साए में वो है जिसे देखा भी नहीं
ऐसे हम-साए कि दीवार से दीवार मिले
ग़ज़ल
क़ुर्बत-ए-हुस्न में भी दर्द के आसार मिले
शफ़क़त तनवीर मिर्ज़ा