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क़ुर्बत-ए-हुस्न में भी दर्द के आसार मिले | शाही शायरी
qurbat-e-husn mein bhi dard ke aasar mile

ग़ज़ल

क़ुर्बत-ए-हुस्न में भी दर्द के आसार मिले

शफ़क़त तनवीर मिर्ज़ा

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क़ुर्बत-ए-हुस्न में भी दर्द के आसार मिले
चारा-गर इश्क़ के मरहम के तलबगार मिले

दस्त-ओ-पा अपने तो वाबस्ता-ए-ज़ंजीर सही
इक तमन्ना थी कोई साहब-ओ-मुख़्तार मिले

हाँ जुनूँ-ख़ेज़ी-ए-दिल रेहन-ए-मसर्रत न हुई
ख़ुश हुई वहशत-ए-ग़म जब रसन-ओ-दार मिले

ख़ाक उड़ाएँ कि नए शहर बसाएँ यारो
हम ब-हर-रंग हर इक शौक़ से बेज़ार मिले

हम हैं इस कार-गह-ए-शीशा-गराँ में हैराँ
आइने ताब-ए-नज़ारा के तलबगार मिले

शौक़-ए-बे-मिन्नत-ए-एहसान-ए-दिगर क्या कहिए
ख़ुद से इस शौक़ में हम बर-सर-ए-पैकार मिले

दश्त-ए-मजनूँ था कोई तेशा-फ़रहाद कोई
इशरत-ए-मर्ग सही हीला-ए-बे-कार मिले

ख़्वाहिश-ए-मर्ग दर-ए-यार-ए-तमन्ना ही सही
सर मगर दोश पे हम को भी गिराँ-बार मिले

शब क़यामत सी गुज़र जाती है तन्हाई में
बख़्त-यावर है जिसे दीदा-ए-बेदार मिले

अपने हम-साए में वो है जिसे देखा भी नहीं
ऐसे हम-साए कि दीवार से दीवार मिले