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क़िस्मत को अपने लिक्खे के तईं कौन धो सके | शाही शायरी
qismat ko apne likkhe ke tain kaun dho sake

ग़ज़ल

क़िस्मत को अपने लिक्खे के तईं कौन धो सके

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार

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क़िस्मत को अपने लिक्खे के तईं कौन धो सके
सब हो सके व-लेक ये इतना न हो सके

फूलों की सेज उस के लिए फ़र्श-ए-ख़ार है
तुझ बिन किसी तरह तिरा आशिक़ न हो सके

तुझ बिन न कर सके मय-ए-इशरत से हल्क़ तर
ख़ूँ-नाब-ए-ग़म से लब तिरा आशिक़ न हो सके

गर चाहे गुलशन-ए-दिल-पुर-दाग़ की बहार
तू तुख़्म-ए-अश्क जितने कि ऐ दीदा बो सके

देखा असर तुम्हारा भी ऐ चश्म-ए-अश्क-बार
कुछ कर सके न उस का घर अपना डुबो सके

दिल की हवस निकाल लें आह-ओ-फ़ुग़ाँ भी आप
ये भी न दरगुज़र करें जो उन से हो सके

नईं जान-ओ-दिल के खोने 'जहाँदार' को दरेग़
याद उस की पर न जान-ओ-दिल अपने से खो सके