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क़ज़ा का वक़्त रुख़्सत की घड़ी है | शाही शायरी
qaza ka waqt ruKHsat ki ghaDi hai

ग़ज़ल

क़ज़ा का वक़्त रुख़्सत की घड़ी है

सैफ़ुद्दीन सैफ़

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क़ज़ा का वक़्त रुख़्सत की घड़ी है
ज़रा ठहरो कि ये मंज़िल कड़ी है

जिसे तुम छोड़ कर रुख़्सत हुए थे
वो बस्ती आज तक सूनी पड़ी है

अभी तक दिल के वीराने में जैसे
तमन्ना हाथ फैलाए खड़ी है

मिरे दुश्मन भी अब तो आ रहे हैं
तुम्हें किस वक़्त जाने की पड़ी है

तुम्हारे दर्द-मंदों की ख़बर ले
ग़म-ए-दौराँ को ऐसी क्या पड़ी है

किसी की याद 'सैफ़' और दिल की हालत
घना जंगल अकेली झोंपड़ी है