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क़तरा-ए-आब को कब तक मिरी धरती तरसे | शाही शायरी
qatra-e-ab ko kab tak meri dharti tarse

ग़ज़ल

क़तरा-ए-आब को कब तक मिरी धरती तरसे

ज़ाहिदा ज़ैदी

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क़तरा-ए-आब को कब तक मिरी धरती तरसे
आग लग जाए समुंदर में तो पानी बरसे

सुर्ख़ मिट्टी की रिदा ओढ़े है कब से आकाश
न शफ़क़ फूले न रिम-झिम कहीं बादल बरसे

हम को खींचे लिए जाते हैं सराबों के भँवर
जाने किस वक़्त में हम लोग चले थे घर से

किस की दहशत है कि पर्वाज़ से ख़ाइफ़ हैं तुयूर
क़ुमरियाँ शोर मचाती नहीं किस के डर से

चार-सू कूचा-ओ-बाज़ार में महशर है बपा
ख़ौफ़ से लोग निकलते नहीं अपने घर से

मुड़ के देखा तो हमें छोड़ के जाती थी हयात
हम ने जाना था कोई बोझ गिरा है सर से