क़त्ल पर बाँध चुका वो बुत-ए-गुमराह मियाँ
देखें अब किस की तरफ़ होते हैं अल्लाह मियाँ
नज़'अ में चश्म को दीदार से महरूम न रख
वर्ना ता-हश्र ये देखेंगी तिरी राह मियाँ
तू जिधर चाहे उधर जा कि सहर से ता-शाम
मैं भी साए की तरह हूँ तिरे हम-राह मियाँ
हम तिरी चाह से चाहेंगे उसे भी दिल से
जिस को जी चाहे उसे शौक़ से तू चाह मियाँ
लेकिन इतना है कि इस चाह में दरिया हैं कई
ऐसे ऐसे कई हैं जिन की नहीं थाह मियाँ
आगे मुख़्तार हो तुम हम जो तुम्हें चाहे हैं
इस सबब से तुम्हें हम करते हैं आगाह मियाँ
जब दम-ए-नज़अ न आया वो सितमगर तो 'नज़ीर'
मर गया कह के ये हसरत-ज़दा ऐ वाह मियाँ
ग़ज़ल
क़त्ल पर बाँध चुका वो बुत-ए-गुमराह मियाँ
नज़ीर अकबराबादी