क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
पर तिरे अहद से आगे तो ये दस्तूर न था
रात मज्लिस में तिरे हुस्न के शोले के हुज़ूर
शम्अ के मुँह पे जो देखा तो कहीं नूर न था
ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
मैं ने पूछा तो कहा ख़ैर ये मज़कूर न था
बावजूदे कि पर-ओ-बाल न थे आदम के
वहाँ पहुँचा कि फ़रिश्ते का भी मक़्दूर न था
परवरिश ग़म की तिरे याँ तईं तो की देखा
कोई भी दाग़ था सीने में कि नासूर न था
मोहतसिब आज तो मय-ख़ाने में तेरे हाथों
दिल न था कोई कि शीशे की तरह चूर न था
'दर्द' के मिलने से ऐ यार बुरा क्यूँ माना
उस को कुछ और सिवा दीद के मंज़ूर न था
ग़ज़ल
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
ख़्वाजा मीर 'दर्द'