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क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था | शाही शायरी
qatl-e-ashiq kisi mashuq se kuchh dur na tha

ग़ज़ल

क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था

ख़्वाजा मीर 'दर्द'

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क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
पर तिरे अहद से आगे तो ये दस्तूर न था

रात मज्लिस में तिरे हुस्न के शोले के हुज़ूर
शम्अ के मुँह पे जो देखा तो कहीं नूर न था

ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
मैं ने पूछा तो कहा ख़ैर ये मज़कूर न था

बावजूदे कि पर-ओ-बाल न थे आदम के
वहाँ पहुँचा कि फ़रिश्ते का भी मक़्दूर न था

परवरिश ग़म की तिरे याँ तईं तो की देखा
कोई भी दाग़ था सीने में कि नासूर न था

मोहतसिब आज तो मय-ख़ाने में तेरे हाथों
दिल न था कोई कि शीशे की तरह चूर न था

'दर्द' के मिलने से ऐ यार बुरा क्यूँ माना
उस को कुछ और सिवा दीद के मंज़ूर न था