क़स्में वा'दे रह जाते हैं
इंसाँ आधे रह जाते हैं
ख़त से ख़ुशबू उड़ जाती है
काग़ज़ सारे रह जाते हैं
रब की मर्ज़ी ही चलती है
और इरादे रह जाते हैं
लब पर उँगली रख लेती हो
हम चुप साधे रह जाते हैं
उस के रोब-ए-हुस्न के आगे
मारे बाँधे रह जाते हैं

ग़ज़ल
क़स्में वा'दे रह जाते हैं
वजीह सानी