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क़सम न खाओ तग़ाफ़ुल से बाज़ आने की | शाही शायरी
qasam na khao taghaful se baz aane ki

ग़ज़ल

क़सम न खाओ तग़ाफ़ुल से बाज़ आने की

फ़ानी बदायुनी

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क़सम न खाओ तग़ाफ़ुल से बाज़ आने की
कि दिल में अब नहीं ताक़त सताए जाने की

हमारी मौत ने कुछ मुख़्तसर किया वर्ना
कुछ इंतिहा ही न थी इश्क़ के फ़साने की

गिरी न बर्क़ कुछ इस ख़ौफ़ से मिरे होते
तड़प के आग बुझा दूँ न आशियाने की

तुम्हारा दर्द तो दरमाँ बना लिया हम ने
अब और सोचिए तदबीर दिल दुखाने की

ज़माना कुफ़्र-ए-मोहब्बत से कर चुका था गुरेज़
तिरी नज़र ने पलट दी हवा ज़माने की

पलट पलट के क़फ़स ही की सम्त जाता हूँ
किसी ने राह बताई न आशियाने की

नजात दी ग़म-ए-दुनिया से दर्द-ए-दिल ने मुझे
ये एक राह मिली ग़म से छूट जाने की

वो सुब्ह-ए-ईद का मंज़र तिरे तसव्वुर में
वो दिल में आ के अदा तेरे मुस्कुराने की

बता रहा है हर अंदाज़ ख़ाक-ए-'फ़ानी' का
ये ख़ाक है उसी काफ़िर के आस्ताने की