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क़सम ख़ुदा की बुलंदी से गुफ़्तुगू करते | शाही शायरी
qasam KHuda ki bulandi se guftugu karte

ग़ज़ल

क़सम ख़ुदा की बुलंदी से गुफ़्तुगू करते

नवाज़ असीमी

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क़सम ख़ुदा की बुलंदी से गुफ़्तुगू करते
उड़ान भरने से पहले अगर वुज़ू करते

फ़ना का ख़ौफ़ रहा रात भर मोहल्ले पर
फ़क़ीर गुज़रे थे कल शाम अल्लाह-हू करते

हमारे साये ज़मीनों में धँस चुके थे यहाँ
सफ़र का अज़्म भला कैसे चार सू करते

किसी पे धूप के चिलके न डालते हरगिज़
इक आइना भी अगर ख़ुद के रू-ब-रू करते

झुकी जबीन का मेयार बढ़ गया होता
गर अपने आप को मसजूद क़िबला-रू करते

अभी हुई हैं कहाँ पत्थरों की बरसातें
अभी से फिरने लगे क्यूँ लहू लहू करते

जो लोग मोम की दस्तार बाँधे फिरते है
ज़रा सी देर तो सुरज से गुफ़्तुगू करते

किरन के धागे का हम को अगर सिरा मिलता
हवाएँ सीते ख़लाओं को हम रफ़ू करते

'नवाज़' इस लिए ख़ामोशियों से लिपटे हैं
ज़बान खुलती तो पैदा नए अदू करते