क़र्ज़ क्या क्या नज़र पे निकले हैं
जब भी सैर-ओ-सफ़र पे निकले हैं
जंगलों से गुज़रने वालों के
रास्ते मेरे घर पे निकले हैं
नाम पूछा है राहगीरों ने
जब कभी रहगुज़र पे निकले हैं
ज़ख़्म फूटे हैं जा-ब-जा तन पर
क्या शगूफ़े शजर पे निकले हैं
क्या मुसीबत है शहर वालों पर
रख के सामान सर पे निकले हैं
साथ ले कर किताब यादों की
एक लम्बे सफ़र पे निकले हैं
दश्त-ओ-सहरा से घूम-फिर के 'रज़ी'
अब शनासा डगर पे निकले हैं
ग़ज़ल
क़र्ज़ क्या क्या नज़र पे निकले हैं
ख़्वाज़ा रज़ी हैदर