क़र्या-ए-जाँ से गुज़र कर हम ने ये देखा भी है
जिस जगह ऊँची चटानें हैं वहाँ दरिया भी है
दर्द का चढ़ता समुंदर जिस्म का कच्चा मकाँ
और उन के दरमियाँ आवाज़ का सहरा भी है
रूह की गहराई में पाता हूँ पेशानी के ज़ख़्म
सिर्फ़ चाहा ही नहीं मैं ने उसे पूजा भी है
रात की परछाइयाँ भी घर के अंदर बंद हैं
शाम की दहलीज़ पर सूरज का नक़्श-ए-पा भी है
चाँद की किरनें ख़राशें हैं दर-ओ-दीवार पर
और दर-ओ-दीवार के पहलू में इक साया भी है
घर का दरवाज़ा मुक़फ़्फ़ल है अगर देखे कोई
अंदर इक कोहराम है जैसे कोई रहता भी है
जब मैं 'अख़्तर' पत्थरों को आइना दिखला चुका
मैं ने देखा आइनों के हाथ में तेशा भी है
ग़ज़ल
क़र्या-ए-जाँ से गुज़र कर हम ने ये देखा भी है
अख़्तर होशियारपुरी