क़र्या-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं
ख़ाक-ब-सर इस दश्त में ख़ाक उड़ा के आए हैं
याद है तेग़-ए-बे-रुख़ी याद है नावक-ए-सितम
बज़्म से तेरी अहल-ए-दिल रंज उठा के आए हैं
जुर्म थी सैर-ए-गुलिस्ताँ जुर्म था जल्वा-हा-ए-गुल
जब्र के बावजूद हम गश्त लगा के आए हैं
पहले भी सर बहुत कटे पहले भी ख़ूँ बहुत बहा
अब के मगर अज़ाब के दौर बला के आए हैं
रात का कोई पहर है तेज़ हवा का क़हर है
ख़ौफ़-ज़दा दिलों में सब हर्फ़ दुआ के आए हैं
ग़ज़ल
क़र्या-ए-इंतिज़ार में उम्र गँवा के आए हैं
अहमद अज़ीम