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क़मर भी दूर न था कहकशाँ बुलंद न थी | शाही शायरी
qamar bhi dur na tha kahkashan buland na thi

ग़ज़ल

क़मर भी दूर न था कहकशाँ बुलंद न थी

मंज़ूर अहमद मंज़ूर

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क़मर भी दूर न था कहकशाँ बुलंद न थी
हमीं को फ़र्श से दूरी मगर पसंद न थी

ज़रा सी आतिश-ए-ग़म से चटख़ के बुझ जाती
मिरी हयात-ए-जुनूँ दाना-ए-सिपंद न थी

लहू ज़मीं के शिगाफ़ों से बे-सबब फूटा
फ़लक की आँख अभी माइल-ए-गज़ंद न थी

यही कि पास था तक़्दीस-ए-बाम का वर्ना
तलब के हाथ में क्या शौक़ की कमंद न थी

हमारे हाल पे अहल-ए-जहाँ के होंटों पर
हँसी न थी कोई ऐसी जो ज़हर-ख़ंद न थी

शगुफ़्त-ए-गुल की सदा हो कि गिर्या-ए-शबनम
जहाँ में कौन सी आवाज़ थी जो पंद न थी

फ़रेब दे गई आलम को ख़ू-ए-तन्हाई
मिरे जुनूँ की तबीअ'त तो ख़ुद-पसंद न थी

ज़ियाँ था नाज़ मता-ए-हुनर पे ऐ 'मंज़ूर'
ये चीज़ चश्म-ए-ज़माना में अर्जुमंद न थी