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क़ल्ब-ओ-नज़र के सिलसिले मेरी निगाह में रहे | शाही शायरी
qalb-o-nazar ke silsile meri nigah mein rahe

ग़ज़ल

क़ल्ब-ओ-नज़र के सिलसिले मेरी निगाह में रहे

गाैस मथरावी

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क़ल्ब-ओ-नज़र के सिलसिले मेरी निगाह में रहे
मुझ से क़रीब-तर न थे जो तिरी चाह में रहे

क़हर-ए-ख़ुदा की ज़द पे क्यूँ आ न सके सियाहकार
किस की सुपुर्दगी में थे किस की पनाह में रहे

सूरत-ए-हाल देख कर सब को है फ़िक्र ये कि अब
जिस्म अमाँ में हो न हो कज तो कुलाह में रहे

दार-ओ-रसन के फ़ैसले सच के अमीन हों अगर
थोड़ी सी जुरअत-ए-सुख़न हर्फ़-ए-गवाह में रहे

कोई सबब तो था कि 'ग़ौस' फ़हम-ओ-ज़का के बावजूद
कार-ए-सवाब छोड़ कर कार-ए-गुनाह में रहे