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क़ल्ब की बंजर ज़मीं पर ख़्वाहिशें बोते हुए | शाही शायरी
qalb ki banjar zamin par KHwahishen bote hue

ग़ज़ल

क़ल्ब की बंजर ज़मीं पर ख़्वाहिशें बोते हुए

ऐन इरफ़ान

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क़ल्ब की बंजर ज़मीं पर ख़्वाहिशें बोते हुए
ख़ुद को अक्सर देखता हूँ ख़्वाब में रोते हुए

दश्त-ए-वीराँ का सफ़र है और नज़र के सामने
मो'जज़े दर मो'जज़े दर मो'जज़े होते हुए

गामज़न हैं हम मुसलसल अजनबी मंज़िल की ओर
ज़िंदगी की आरज़ू में ज़िंदगी खोते हुए

कल मिरे हम-ज़ाद ने मुझ से किया दिलकश सवाल
किस को देता हूँ सदाएँ रात भर सोते हुए

अस्त होता जा रहा है एक सूरज उस तरफ़
इस तरफ़ वो दिख रहा है फिर उदय होते हुए