क़लम ख़ामोश है अल्फ़ाज़ की तासीर बोले है
हमारी सफ़्हा-ए-क़िर्तास पर तहरीर बोले है
ख़ुदारा अब मुझे आज़ाद कर दो क़ैद-ए-पैहम से
मचल कर पाँव में लिपटी हुई ज़ंजीर बोले है
अजब मे'मार हैं जिन की समझ में ये नहीं आता
इमारत कितनी मुस्तहकम है ख़ुद ता'मीर बोले है
यही महसूस होता है अजंता की गुफाओं में
कि हर तस्वीर तो चुप है फ़न-ए-तस्वीर बोले है
हक़ीक़त मिट नहीं सकती बदल देने से तारीख़ें
हर इक फ़न में हमारा हुस्न-ए-आलम-गीर बोले है
करिश्मा ये नहीं तो और क्या है ख़ून-ए-नाहक़ का
हमारी बे-गुनाही पर यहाँ शमशीर बोले है
ख़ुदा बंदे से क्या पूछे वहाँ उस की रज़ा 'रहबर'
हथेली की लकीरों में जहाँ तक़दीर बोले है

ग़ज़ल
क़लम ख़ामोश है अल्फ़ाज़ की तासीर बोले है
रहबर जौनपूरी