क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी
जिस के माथे पे मिरे बख़्त का तारा चमका
चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी
मैं ने हाथों को ही पतवार बनाया वर्ना
एक टूटी हुई कश्ती मिरे किस काम की थी
वो कहानी कि अभी सूइयाँ निकलीं भी न थीं
फ़िक्र हर शख़्स को शहज़ादी के अंजाम की थी
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मिरे घनश्याम की थी
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं-माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी
ग़ज़ल
क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
परवीन शाकिर