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क़ैद-ए-ग़म-ए-हयात से हम को छुड़ा लिया | शाही शायरी
qaid-e-gham-e-hayat se hum ko chhuDa liya

ग़ज़ल

क़ैद-ए-ग़म-ए-हयात से हम को छुड़ा लिया

शमीम करहानी

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क़ैद-ए-ग़म-ए-हयात से हम को छुड़ा लिया
अच्छा किया कि आप ने अपना बना लिया

होने दिया न हम ने अंधेरा शब-ए-फ़िराक़
बुझने लगा चराग़ तो दिल को जला लिया

दुनिया के पास है कोई इस तंज़ का जवाब
दीवाना अपने हाल पे ख़ुद मुस्कुरा लिया

क्या बात थी कि ख़ल्वत-ए-ज़ाहिद को देख कर
रिंद-ए-गुनाहगार ने सर को झुका लिया

चुप हूँ तुम्हारा दर्द-ए-मोहब्बत लिए हुए
सब पूछते हैं तुम ने ज़माने से क्या लिया

ना-क़ाबिल-ए-बयाँ हैं मोहब्बत की लज़्ज़तें
कुछ दिल ही जानता है जो दिल ने मज़ा लिया

रोज़-ए-अज़ल पड़ी थी हज़ारों ही नेमतें
हम ने किसी का दर्द-ए-मोहब्बत उठा लिया

बढ़ने लगी जो तल्ख़ी-ए-ग़म-हा-ए-ज़िंदगी
थोड़ा सा बादा-ए-ग़म-ए-जानाँ मिला लिया

वाक़िफ़ नहीं गिरफ़्त-ए-तसव्वुर से वो 'शमीम'
जो ये समझ रहे हैं कि दामन छुड़ा लिया