क़फ़स को चमन से सिवा जानते हैं
हर इक साँस को हम सबा जानते हैं
लहू रो के सींचा है हम ने चमन को
हर इक फूल का माजरा जानते हैं
जिसे नग़्मा-ए-नय समझती है दुनिया
उसे भी हम अपनी सदा जानते हैं
इशारा करे जो नई ज़िंदगी का
हम उस ख़ुद-कुशी को रवा जानते हैं
तिरी धुन में कोसों सफ़र करने वाले
तुझे संग-ए-मंज़िल-नुमा जानते हैं
ग़ज़ल
क़फ़स को चमन से सिवा जानते हैं
नासिर काज़मी