क़दम क़दम पे नया इम्तिहाँ है मेरे लिए
ये शहर आज भी इक हफ़्त-ख़्वाँ है मेरे लिए
नहीं है अब कोई एहसास-ए-रोज़-ओ-शब भी मुझे
बस एक अर्सा-ए-पैकार-ए-जाँ है मेरे लिए
न रहगुज़ार-ए-शजर-ए-दार है न आब-ओ-सहाब
ये तेज़ धूप ये सहरा-ए-जाँ है मेरे लिए
मैं इक सितारा हूँ उस के फ़लक से टूटा हुआ
वो धुँद होती हुई कहकशाँ है मेरे लिए
समेट लेती है मुझ को मैं टूटा-फूटा सही
ये रात ख़िर्क़ा-ए-आवार्गां है मेरे लिए
महकते रहते हैं ख़्वाबों में हिजरतों के गुलाब
नई ज़मीन नया आसमाँ है मेरे लिए
उबूर करना है दरिया-ए-शोर मुझ को 'कमाल'
और एक कश्ती-ए-बे-बादबाँ है मेरे लिए
ग़ज़ल
क़दम क़दम पे नया इम्तिहाँ है मेरे लिए
अब्दुल्लाह कमाल