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क़दम क़दम का इलाक़ा है ना-रवा तक है | शाही शायरी
qadam qadam ka ilaqa hai na-rawa tak hai

ग़ज़ल

क़दम क़दम का इलाक़ा है ना-रवा तक है

ख़ावर जीलानी

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क़दम क़दम का इलाक़ा है ना-रवा तक है
फ़ुसून-ए-जौर-ओ-जफ़ा पेशा जा-ब-जा तक है

गर एक बार का होना अलम ग़नीमत था
सितम तो ये है कि दर-पेश बार-हा तक है

दिए की लौ से नहीं वास्ता किसी का कोई
अगर किसी का कोई है तो फिर हवा तक है

अमल है ख़ुद पे अमल-दार ता दम-ए-मौक़ूफ़
और इस का रद्द-ए-अमल अपने इल्तवा तक है

सदा-ए-शोर-ओ-शग़ब है इधर समाअत तक
शुनीद गिर्द ओ जवानिब इधर सदा तक है

मगर ये कौन बताए सफ़र-नवर्दों को
कि हद दश्त-ए-जुनूँ उन के इक्तिफ़ा तक है

ऐ बे-क़रारी-ए-दिल मुझ को ये ख़बर ही न थी
कि जो क़रार की सरहद है इत्तिक़ा तक है

ख़ुदा से बाद में रक्खे हुए है दुनिया को
वो फ़ासला जो हथेली से इक दुआ तक है

कहीं परे की है हाजत-रवाई से मेरी
मिरा सवाल ज़रूरत से मावरा तक है

है तू ही आँख मिरी ऐ जमाल-ए-पेश-ए-नज़र
सो ये तमाशा मिरा इक तिरी रज़ा तक है

नहीं है कोई भी हतमी यहाँ हद-ए-मालूम
हर एक इंतिहा इक और इंतिहा तक है