क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है
नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाएक़-आश्ना फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है
ख़िलाफ़-ए-मस्लहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तग़य्युर आ ही जाता है
हवाएँ ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बन कर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है
शिकायत क्यूँ इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसाँ की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है
शगूफ़ों पर भी आती हैं बलाएँ यूँ तो कहने को
मगर जो फूल बन जाता है वो कुम्हला ही जाता है
समझती हैं मआल-ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है
सहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है
ग़ज़ल
क़दम इंसाँ का राह-ए-दहर में थर्रा ही जाता है
जोश मलीहाबादी