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क़द तिरा सर्व-ए-रवाँ था मुझे मालूम न था | शाही शायरी
qad tera sarw-e-rawan tha mujhe malum na tha

ग़ज़ल

क़द तिरा सर्व-ए-रवाँ था मुझे मालूम न था

सिराज औरंगाबादी

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क़द तिरा सर्व-ए-रवाँ था मुझे मालूम न था
गुलशन-ए-दिल में अयाँ था मुझे मालूम न था

धूप में ग़म की अबस जी कूँ जलाया अफ़्सोस
उस के साए में अमाँ था मुझे मालूम न था

यार ने अबरू ओ मिज़्गाँ सीं मुझे सैद किया
साहिब-ए-तीर-ओ-कमाँ था मुझे मालूम न था

सब जगत ढूँड फिरा यार न पाया लेकिन
दिल के गोशे में निहाँ था मुझे मालूम न था

ख़ाक तेरे क़दम-ए-पाक की ऐ नूर-ए-निगाह
सुरमा-ए-दीदा-ए-जाँ था मुझे मालूम न था

मैं समझता था कि उस यार का है नाम-ओ-निशाँ
यार बेनाम-ओ-निशाँ था मुझे मालूम न था

रोज़ा-दारान-ए-जुदाई कूँ ख़म-ए-अबरू-ए-यार
माह-ए-ईद-ए-रमज़ां था मुझे मालूम न था

निगह-ए-शोख़ ने दिल एक करिश्मे में लिया
क्या बला सैफ़-ए-ज़बाँ था मुझे मालूम न था

शब-ए-हिज्राँ की न थी ताब मुझे मिस्ल-ए-'सिराज'
रुख़ तिरा नूर-फ़िशाँ था मुझे मालूम न था