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क़बा-ए-गर्द हूँ आता है ये ख़याल मुझे | शाही शायरी
qaba-e-gard hun aata hai ye KHayal mujhe

ग़ज़ल

क़बा-ए-गर्द हूँ आता है ये ख़याल मुझे

हामिद जीलानी

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क़बा-ए-गर्द हूँ आता है ये ख़याल मुझे
चले हवा तो कहूँ किस से मैं सँभाल मुझे

सुकूत-ए-मर्ग के गुम्बद में इक सदा बन के
कभी हिसार-ए-ग़म-ए-ज़ीस्त से निकाल मुझे

कोई भी राह का पत्थर नज़र नहीं आता
मैं देखता हूँ उसे हैरत-ए-सवाल मुझे

मिरे वजूद में इक कर्ब बन के बिखरा है
ये मेरा दिल कि हुआ बाइस-ए-वबाल मुझे

हूँ ज़ेर-ए-संग रवाँ आब की तरह 'हामिद'
नुमूद देगा मिरी फ़िक्र का उबाल मुझे