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क़ाबिल-ए-शरह मिरा हाल-ए-दिल-ए-ज़ार न था | शाही शायरी
qabil-e-sharh mera haal-e-dil-e-zar na tha

ग़ज़ल

क़ाबिल-ए-शरह मिरा हाल-ए-दिल-ए-ज़ार न था

बिस्मिल इलाहाबादी

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क़ाबिल-ए-शरह मिरा हाल-ए-दिल-ए-ज़ार न था
सुनने वाले तो बहुत थे कोई ग़म-ख़्वार न था

अब वो जीने के लिए सोच रहा है तदबीर
अपने हाथों जिसे मरना कभी दुश्वार न था

मुझ से पूछो तो क़ज़ा उस की है मौत उस की है
दोश-ए-अहबाब पे जो मर के गिराँ-बार न था

चुनते थे बाग़ में आ आ कर उन्हें अहल-ए-जुनूँ
आशियाँ का मिरे तिनका कोई बेकार न था

ये हमीं ने तो मोहब्बत की निकालीं रस्में
आप पर मरने को पहले कोई तय्यार न था

दाम-ए-सय्याद में आज़ाद रहा शिकवा-ए-ग़म
मैं गिरफ़्तार था लेकिन ये गिरफ़्तार न था

अब उन्हें सामने आने में है उज़्र ऐ 'बिस्मिल'
मिलने-जुलने से जिन्हें पेशतर इंकार न था