क़ाबिल-ए-दीद ये भी मंज़र है
हर ख़ुशी ग़म का एक दफ़्तर है
सोचता हूँ यही मिरा घर है
किस के जल्वों से अब मुनव्वर है
याद-ए-जानाँ अरे मआज़-अल्लाह
जैसे पहलू में एक नश्तर है
उन से हर चंद रस्म-ओ-राह नहीं
सिलसिला ग़म का फिर बराबर है
कैसे हो मुस्तफ़ीज़ पेशानी
संग-दिल जब कि ख़ुद तिरा दर है
यक-ब-यक हंस पड़ा है दीवाना
हर-नफ़स देखता है शश्दर है
इम्तिहाँ 'ख़िज़्र' है वफ़ाओं का
उस के हाथों में आज ख़ंजर है

ग़ज़ल
क़ाबिल-ए-दीद ये भी मंज़र है
ख़िज़्र बर्नी