प्यासा जो मेरे ख़ूँ का हुआ था सो ख़्वाब था
नींदों में ज़हर घोल रहा था सो ख़्वाब था
काँटा जो दिल के पार है ताबीर है सो ये
सहरा में इक गुलाब खिला था सो ख़्वाब था
इक इल्तिजा थी आँखों में पथरा के रह गई
इक अक्स संग-ए-दर पे खड़ा था सो ख़्वाब था
पहले ज़मीन ख़ाक हुई थी ब-सद-नियाज़
शब भर फिर आसमान जला था सो ख़्वाब था
इक नहर थी जो चीख़ रही थी बहाव से
लश्कर कनार-ए-आब खड़ा था सो ख़्वाब था
बस्ती का चश्म-दीद अकेला गवाह हूँ
कल मेरे आस-पास ख़ुदा था सो ख़्वाब था
डूबी ज़वाल-ए-शाम के हमराह हर उम्मीद
पलकों से टूट कर जो गिरा था सो ख़्वाब था
दिल को यक़ीं न ज़ेहन के हद्द-ए-क़यास में
जो वाक़िआ 'मुजीबी' हुआ था सो ख़्वाब था
ग़ज़ल
प्यासा जो मेरे ख़ूँ का हुआ था सो ख़्वाब था
सिद्दीक़ मुजीबी