EN اردو
पुरानी शाम नए आँगनों को रोती है | शाही शायरी
purani sham nae aanganon ko roti hai

ग़ज़ल

पुरानी शाम नए आँगनों को रोती है

ख़्वाज़ा रज़ी हैदर

;

पुरानी शाम नए आँगनों को रोती है
कहीं चराग़ कहीं रत-जगों को रोती है

कहीं ये हाल कि है फ़ासला जवाज़-ए-सफ़र
कहीं ये हाल थकन फ़ासलों को रोती है

ये शाख़-ए-दिल थी हरे मौसमों की दिल-दादा
सो दश्त-ए-हिज्र में ताज़ा रुतों को रोती है

वो आँख जिस ने कभी हैरतें अता की थीं
वो आँख आज मिरी वहशतों को रोती है

ये कैसा तर्क-ए-सुकूनत का ए'तिबार उठा
सफ़र में रूह-ए-सफ़र हिजरतों को रोती है

गुज़िश्ता उम्र से मंसूब इक शनासाई
पस-ए-हजूज़ खड़ी फ़ुर्सतों को रोती है

मिरा ख़मीर ये किस ख़ाल है उठा है 'रज़ी'
कि मेरी ख़ाक अजब मस्कनों को रोती है