पुरानी शाम नए आँगनों को रोती है
कहीं चराग़ कहीं रत-जगों को रोती है
कहीं ये हाल कि है फ़ासला जवाज़-ए-सफ़र
कहीं ये हाल थकन फ़ासलों को रोती है
ये शाख़-ए-दिल थी हरे मौसमों की दिल-दादा
सो दश्त-ए-हिज्र में ताज़ा रुतों को रोती है
वो आँख जिस ने कभी हैरतें अता की थीं
वो आँख आज मिरी वहशतों को रोती है
ये कैसा तर्क-ए-सुकूनत का ए'तिबार उठा
सफ़र में रूह-ए-सफ़र हिजरतों को रोती है
गुज़िश्ता उम्र से मंसूब इक शनासाई
पस-ए-हजूज़ खड़ी फ़ुर्सतों को रोती है
मिरा ख़मीर ये किस ख़ाल है उठा है 'रज़ी'
कि मेरी ख़ाक अजब मस्कनों को रोती है
ग़ज़ल
पुरानी शाम नए आँगनों को रोती है
ख़्वाज़ा रज़ी हैदर