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पुर-ख़ौफ़ ज़ुल्मतों से हमें फिर निकालिए | शाही शायरी
pur-KHauf zulmaton se hamein phir nikaliye

ग़ज़ल

पुर-ख़ौफ़ ज़ुल्मतों से हमें फिर निकालिए

सय्यद रज़ा

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पुर-ख़ौफ़ ज़ुल्मतों से हमें फिर निकालिए
अब के जो हो सके कई सूरज उछालिए

शामिल किसी का हाथ है मेरी उठान में
ये बेल जो चढ़ी तो कोई आसरा लिए

पता हूँ एक शाख़ से टूटा गिरा हुआ
फिरती रहेगी जाने कहाँ तक हवा लिए

इंकार प्यास आग लहू तन दरीदगी
कूफ़े से हो नसीब पलटना तो क्या लिए

हर बार अपनी चुप से उलझते रहा किए
आसाँ नहीं हैं हर्फ़-ओ-नवा के सिवा लिए

मुमकिन है जिस्म ताब-ए-गोहर दिल का बन सके
ये ख़्वाब है तो आँख की सीपी में पालिए

शायद किसी ख़याल की तह में छुपे मिलें
साहिल हरे-भरे कि समुंदर ने आ लिए