पुकारते पुकारते सदा ही और हो गई
क़ुबूल होते होते हर दुआ ही और हो गई
ज़रा सा रुक के दो-घड़ी चमन पे क्या निगाह की
बदल गए मिज़ाज-ए-गुल हवा ही और हो गई
ये किस के नाम की तपिश से पर पर जल उठे
हथेलियाँ महक गईं हिना ही और हो गई
ख़िज़ाँ ने अपने नाम की रिदा जो गुल पे डाल दी
चमन का रंग उड़ गया सबा ही और हो गई
ग़ुरूर-ए-आफ़्ताब से ज़मीं का दिल सहम गया
तमाम बारिशें थमीं घटा ही और हो गई
ख़मोशियों ने ज़ेर-ए-लब ये क्या कहा ये क्या सुना
कि काएनात-ए-इश्क़ की अदा ही और हो गई
जो वक़्त मेहरबाँ हुआ तो ख़ार फूल बन गए
ख़िज़ाँ की ज़र्द ज़र्द सी क़बा ही और हो गई
वरक़ वरक़ 'अलीना' हम ने ज़िंदगी से यूँ रंगा
कि कातिब-ए-नसीब की रज़ा ही और हो गई
ग़ज़ल
पुकारते पुकारते सदा ही और हो गई
अलीना इतरत