पुकारता है मगर ध्यान में नहीं आता
अजीब हर्फ़ है इम्कान में नहीं आता
बस एक नाम है अपना निशाँ जो याद नहीं
और एक चेहरा जो पहचान में नहीं आता
मैं गोशा-गीर हूँ सदियों से अपने हुजरे में
मसाफ़-ए-बैअत-ओ-पैमान में नहीं आता
मुझे भी हुक्म नहीं शहर से निकलने का
मिरा हरीफ़ भी मैदान में नहीं आता
मैं इस हुजूम में क्यूँ इस क़दर अकेला हूँ
कि जम्अ हो के भी मीज़ान में नहीं आता
मिरे ख़ुदा मुझे इस आग से निकाल कि तू
समझ में आता है ईक़ान में नहीं आता
ग़ज़ल
पुकारता है मगर ध्यान में नहीं आता
इरफ़ान सिद्दीक़ी